• 2024 के लोकसभा चुनाव में महिला मतदाता निभायेंगी अहम भूमिका

    कई पार्टियां महिला मतदाताओं को प्रोत्साहन तो देती हैं लेकिन अपनी उम्मीदवार सूची में महिलाओं को समान प्रतिनिधित्व नहीं देतीं। महिला आरक्षण कानून के अनुसार पार्टियों को अपने टिकटों का कम से कम एक तिहाई हिस्सा महिलाओं के लिए आरक्षित करना चाहिए।

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    — कल्याणी शंकर
    राजनीतिक दलों को मतदाताओं को लुभाने के लिए प्रोत्साहनों पर निर्भर रहने के बजाय महत्वपूर्ण मुद्दों को संबोधित करने पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए। कई पार्टियां महिला मतदाताओं को प्रोत्साहन तो देती हैं लेकिन अपनी उम्मीदवार सूची में महिलाओं को समान प्रतिनिधित्व नहीं देतीं। महिला आरक्षण कानून के अनुसार पार्टियों को अपने टिकटों का कम से कम एक तिहाई हिस्सा महिलाओं के लिए आरक्षित करना चाहिए।


    क्या महिला मतदाता आगामी 2024 आम चुनाव का फैसला कर सकती हैं? उनके मतदाताओं की बढ़ती संख्या और अनुकूल कानून, जैसे संसद और विधानसभाओं में महिलाओं के लिए एक तिहाई आरक्षण, उन्हें एक महत्वपूर्ण वर्ग बनाते हैं। राजनीतिक दल इस महत्वपूर्ण वर्ग की महिला मतदाताओं को आकर्षित करने की कोशिश कर रहे हैं। ऐसा करने के लिए, वे विभिन्न लाभ की पेशकश कर रहे हैं।


    एक हालिया रिपोर्ट के अनुसार, महिला मतदाताओं का उच्च मतदान 2024 के चुनावों पर महत्वपूर्ण प्रभाव डाल सकता है। रिपोर्ट का अनुमान है कि 2047 तक महिलाओं का मतदान प्रतिशत 55फीसदी तक पहुंच सकता है, जबकि पुरुषों का मतदान प्रतिशत घटकर 45फीसदी हो सकता है।


    गौरतलब है कि भारत के संविधान के निर्माता बी.आर.अम्बेडकर ने एक बार कहा था कि - 'राजनीतिक शक्ति सभी सामाजिक प्रगति की कुंजी है।Ó यह कथन आज भी लागू है, क्योंकि महिलाएं तब तक न्याय पाने की उम्मीद नहीं कर सकतीं जब तक कि निर्णय लेने की प्रक्रिया में उनकी भागीदारी न हो।


    भारत में महिलाएं लैंगिक पूर्वाग्रह को दूर करने के लिए और अधिक उपायों की मांग कर रही हैं। पिछले सितंबर में संसद ने महिलाओं को सशक्त बनाने के लिए महिला आरक्षण विधेयक पारित किया था। यह विधेयक संसद और राज्य विधानसभाओं में उनके लिए 33फीसदी आरक्षण सुनिश्चित करता है। कांग्रेस और भाजपा दोनों ने विधेयक के पारित होने का श्रेय लिया। कांग्रेस नेता सोनिया गांधी ने कहा, 'यह हमारा विधेयक है।' 2008 में सोनिया गांधी ने इसे उच्च सदन में पारित किया लेकिन लोकसभा में ऐसा करने में विफल रहीं। पिछले सितंबर में पीएम मोदी ने बड़े गर्व के साथ इस विधेयक को पेश किया और पहली बार संसद में इस विधेयक के आने के 27 साल बाद यह लगभग सर्वसम्मति से पास हो गया। जनगणना और परिसीमन प्रक्रिया में देरी के कारण यह विधेयक चार साल बाद ही लागू हो पायेगा।


    स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद से, भारत में केवल एक महिला प्रधानमंत्री और 15 महिला मुख्यमंत्री हुई हैं। हालांकि, 1950 के दशक के बाद से चुनाव लड़ने वाली महिलाओं की संख्या सात गुना बढ़ गई है, और लोकसभा में महिलाओं का प्रतिनिधित्व 5फीसदी से बढ़कर 15फीसदी हो गया है।
    विश्व स्तर पर स्थिति समान है। अंतर-संसदीय संघ के अनुसार, दुनिया भर में लगभग 26फीसदी कानून निर्माता महिलाएं हैं। दूसरी ओर, रवांडा में 60फीसदी से अधिक सीटों पर महिलाओं का कब्जा है। 2008 में, रवांडा महिला-बहुमत संसद वाला पहला देश बन गया।


    भारत में केवल 14फीसदी संसदीय सीटें महिलाओं के पास हैं। लोकसभा और राज्यसभा में क्रमश: 78 और 24 महिला सदस्य हैं। संसद के निचले सदन में महिलाओं के प्रतिनिधित्व के मामले में भारत 193 देशों में 149वें स्थान पर है। इसके अलावा, भारत के प्रत्येक राज्य में 16फीसदी से कम विधायक महिलाएं हैं।
    भारत में एक महत्वपूर्ण उपाय 1993 में किया गया तथा पंचायत की एक तिहाई सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित कर दी गई थीं, जिसे अब अधिकांश राज्यों में 50प्रतिशत तक बढ़ा दिया गया है। लगभग दस लाख महिलाएं जमीनी स्तर पर सरपंच के रूप में कार्य करती हैं। ये सरपंच अपने स्थूल अनुभव के बल पर उन्नति की सीढ़ियां चढ़ सकेंगी।


    आगामी आम चुनाव में 96.88 करोड़ मतदाता होंगे, जिनमें 47 करोड़ से अधिक महिलाएं हैं। 2.63 करोड़ नये मतदाताओं में से 1.41 करोड़ महिलाएं हैं। केरल, तेलंगाना, तमिलनाडु, पुडुचेरी, गोवा, आंध्र प्रदेश, मणिपुर, मेघालय, मिजोरम और नागालैंड में अधिक महिलाओं ने मतदान के लिए पंजीकरण कराया है।
    महिला आरक्षण विधेयक पारित होने के बावजूद राजनीति में महिलाओं की भागीदारी में कोई खास बढ़ोतरी नहीं हुई है। जबकि राजनीतिक दलों ने विधेयक का समर्थन किया, उन्होंने हाल के विधानसभा चुनावों में महिलाओं को अपने टिकटों का केवल एक छोटा सा प्रतिशत आवंटित किया, आमतौर पर 10-15प्रतिशत। 2024 के लोकसभा चुनावों के लिए, भाजपा ने आगामी लोकसभा चुनावों में 421 उम्मीदवारों में से महिलाओं को केवल 67 टिकट दिये। हालांकि, ममता बनर्जी, नीतीश कुमार और अरविंद केजरीवाल जैसे कुछ मुख्यमंत्रियों ने महिला सशक्तीकरण को बढ़ावा देने के लाभों को पहचाना है।


    लैंगिक भेदभाव को दूर करने के लिए, पार्टियों को महिला सशक्तीकरण के लिए अधिक महिला नेताओं और उम्मीदवारों को मैदान में उतारने की जरूरत है। हालांकि, कुछ लोगों का तर्क है कि यदि महिलाएं ज्ञात राजनीतिक परिवारों से आती हैं तो वे जीतती हैं। कई नेता उम्मीदवारों को चुनने के लिए अपने परिवार से आगे नहीं देखते हैं। यह समझना जरूरी है कि सभी महिलाएं महिला उम्मीदवारों को वोट नहीं देंगी।


    राजनीतिक दलों को मतदाताओं को लुभाने के लिए प्रोत्साहनों पर निर्भर रहने के बजाय महत्वपूर्ण मुद्दों को संबोधित करने पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए। कई पार्टियां महिला मतदाताओं को प्रोत्साहन तो देती हैं लेकिन अपनी उम्मीदवार सूची में महिलाओं को समान प्रतिनिधित्व नहीं देतीं। महिला आरक्षण कानून के अनुसार पार्टियों को अपने टिकटों का कम से कम एक तिहाई हिस्सा महिलाओं के लिए आरक्षित करना चाहिए। इसके अतिरिक्त, पार्टियों को राजनीतिक राजवंशों को दिये जाने वाले तरजीही व्यवहार को हतोत्साहित करना चाहिए।


    भारतीय राजनीतिक दल विभिन्न योजनाओं और लाभों के साथ महिला मतदाताओं को लक्षित कर रहे हैं। कर्नाटक में कांग्रेस ने महिलाओं को मुफ्त बस यात्रा और 2,000 रुपये नकद प्रोत्साहन राशि दिया है। हिमाचल प्रदेश में 18-60 वर्ष की महिलाओं को 1,500 रुपये मासिक दिया जाना है। दिल्ली की 'मुख्यमंत्री महिला सम्मान योजनाÓ भी 18 वर्ष से अधिक उम्र की महिलाओं को 1,000 रुपये मासिक प्रदान करेगी। पश्चिम बंगाल में टीएमसी ने पारिश्रमिक बढ़ोतरी की घोषणा की है। आप और कांग्रेस 1,000 रुपये मासिक भुगतान करने और गरीब महिलाओं को 1 लाख रुपये सालाना भत्ता देने की घोषणा की है।


    महिलाओं के प्रति राजनीतिक जवाबदेही निर्णय लेने में लिंग संतुलन हासिल करने, राजनीतिक दलों में महिलाओं की अधिक महत्वपूर्ण उपस्थिति और प्रभाव को बढ़ावा देने और पार्टी नीतियों और प्लेटफार्मों में लैंगिक समानता के मुद्दों को आगे बढ़ाने से शुरू होती है। इन सबके लिए शिक्षा भी जरूरी है।
    हमें ऐसे शासन सुधारों की आवश्यकता है जो लैंगिक मुद्दों के प्रति संवेदनशील हों। इससे निर्वाचित अधिकारी अधिक प्रतिक्रियाशील हो सकेंगे।

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